राष्ट्रीय और मानवता के प्रतीक: पं. दीनदयाल उपाध्याय — एकात्म मानववाद, अंत्योदय एवं राष्ट्र निर्माण में आयुर्वेद और योग का योगदान
पं. दीनदयाल उपाध्याय भारतीय दर्शन के ऐसे अद्वितीय चिंतक थे जिन्होंने “एकात्म मानववाद” के माध्यम से व्यक्ति, समाज, प्रकृति और राष्ट्र के समन्वित संबंध को स्पष्ट किया। उनका चिंतन केवल राजनीतिक सिद्धांत नहीं बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन था, जो मनुष्य के भौतिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास का संतुलन स्थापित करता है। यह विचारधारा आयुर्वेद और योग के मूल सिद्धांतों से गहराई से जुड़ी है, जहाँ स्वास्थ्य का अर्थ केवल रोग की अनुपस्थिति नहीं बल्कि “शरीर, मन, आत्मा और समाज” की समरसता है।
शोध में पाया गया कि उपाध्याय जी का “अंत्योदय” सिद्धांत — समाज के अंतिम व्यक्ति तक कल्याण की पहुँच — आयुर्वेद के “लोकहिताय लोकसंग्रहाय” और योग के “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भाव से प्रतिध्वनित होता है। सांख्यिकीय विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि 2014 से 2024 तक भारत में आयुष केंद्रों की संख्या में 78% वृद्धि हुई है, और योग अभ्यास करने वाले नागरिकों का प्रतिशत 12% से बढ़कर 41% तक पहुँचा है। WHO के अनुसार, परंपरागत चिकित्सा और योग ने तनाव व रोग-भार में औसतन 32% तक कमी दर्ज की है।
नैतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से, पं. उपाध्याय के विचार आत्मनियंत्रण, स्वावलंबन और आत्मसाक्षात्कार के योग सिद्धांतों से मेल खाते हैं, जो राष्ट्र के नैतिक पुनर्निर्माण की नींव रखते हैं। यह शोध स्पष्ट करता है कि एकात्म मानववाद, आयुर्वेद और योग — तीनों मिलकर “स्वास्थ्यवान, आत्मनिर्भर और समरस भारत” की अवधारणा को साकार करते हैं।
वर्तमान में AYUSH नीति, योग दिवस और वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा अभियानों ने उनके “स्वदेशी–आत्मनिर्भर भारत” दर्शन को मूर्त रूप दिया है। अतः पं. दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन आधुनिक भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और स्वास्थ्य पुनर्जागरण की प्रेरक धारा है।
उनके शब्दों में —
“हमारे लिए मनुष्य केवल शरीर नहीं, आत्मा भी है; और राष्ट्र केवल भूमि नहीं, एक जीवंत आत्मा है।”
यह दृष्टिकोण आयुर्वेद के “शरीर–इन्द्रिय–मन–आत्मा” और योग के “चित्तवृत्ति निरोध” सिद्धांत से एकात्म रूप से जुड़ा है।